इंसानियत
आज कल मेरा मन विचारों में उलझा रहता हैं,
मुझ से न जाने क्या-क्या कहता हैं,
देख लोग किस तरह से अपनी इंसानियत भुला रहे हैं,
और खुद को आधुनिक बता रहे हैं,
तु भी उन ही लोगों की तरह समझदार बन,
क्या रखा है इंसानियत में, आधुनिक बन,
मैंने कहा मैं भी उन ही लोगों की तरह समझदार और आधुनिक बनने का पुरा प्रयास करता हूँ,
मगर कोई तो हैं जो मुझको टोक देता है,
जब भी मैं कुछ गलत करता हूँ,
ये अंदर वाला मन रोक देता हैं,
माना के गलत करके मैं पैसे कमा लूँगा,
और इस आधुनिक समझदारी से ख़ुद को बचा लूँगा,
मगर क्या उसके बाद मैं रात भर चैन से सो पाऊँगा,
शीशे में देख कर खुद को ख़ुद से आँखें चुराऊँगा,
बस एक यही चीज़ मुझ को नामंजूर हैं,
इंसानियत यदि गरीब हैं,
तो हमें गरीबी मंजूर हैं।
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'
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