पत्नी पर कविता

 


एक दिन पत्नी ने बोला मुझ पर कुछ लिखो ,

हमने कलम उठाई पर एक पंक्ति भी मेरे जहन में ना आई ,

मैंने बोला भागवान मुझको क्यों फसाती हो ,

बेचारी कलम को क्यों डराती हो ,

जब भी तुम पर लिखने बैठु हंसी छूट जाती है,

कलम भी मेरे हाँथो से टुट जाती है ,

अब इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ,

बिना कलम के कैसे लिख सकता हूँ ,

तुम पर लिख दे कुछ यहाँ कौन इतना साहनी है ,

तुम्हे देख कर अच्छे अच्छों को याद आ जाती नानी हैं ,

जब भी मुझे किसी बात से डर लगता हैं ,

तब मैं तुम्हारा दीदार कर लेता हूँ ,

डर उसी वक़्त दफा हो जाता है और कहता है ,

जो आदमी इतना सह सकता है ,डर भला उसका क्या कर सकता हैं ,

तुम मेरे लिए हँसने और रोने का मिश्रित मौका हो ,

ख़ुशी के रूप में मिला  दुखों का तोफ्हा हो ,

दिखने में ख़ूबसूरत एक हसीन धोखा हो ,


अब इससे ज़्यादा तुम्हारी तारीफ़ में मैं क्या लिखुँ ,

जिस लड़के की शादी ना हो रही हो ,उसका होने वाला रोका हो ,

गृहस्थ जीवन का सुख देने वाली ,घर का चूल्हा चौका हो ,

मेरे आँगन में लहलहाती मस्त हवा का झोंका हो ,

तुम्हारी तारीफ़ करता ही रहूँगा ,ख़बरदार मुझे टोका तो ,

इतने से मज़ाक से नाराज़ तो नहीं हो गई ,

किसी ग़लत ख्याल के पास तो नहीं हो गई ,

तुम्हारा हमारा रिश्ता थोड़ा खट्टा थोड़ा मीठा है ,

गृहस्थी में थोड़ा ऊपर थोड़ा निचे सब चलता हैं ,

आखिर की कुछ लाइनो को जबरदस्ती लिखवाया है ,

घर में चलती उसी की माया हैं। 

लेखक - रितेश गोयल 'बेसुध'

 


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