काबिल

कच्ची उम्र में मोहब्बत की कहानियों ने,
हमको बड़ा रिझाया था, 
सोचा था जब काबिल बन जायेंगे, 
हम भी किसी से इश्क़ फरमायेंगे, 
करके किसी को इज़हार आशिक़ बन जायेंगे, 
काबिल बनते ही हमने अपना घोड़ा,
मोहब्बत की गलियों में दौड़ाया, 
ये देखते ही घरवालों ने तुरंत हमे घोड़ी पर चढ़ाया, 
दिल के सारे अरमां वही मोहब्बत की गलियों में रह गए, 
हम थोड़ी जरूरत थोड़ी मजबूरी से आशिक़ बनते रह गए,
अफ़सोस कि आशिक़ों में गिनती होती हमारी,
उससे पहले एक लड़की से शादी हो गयी हमारी, 
मगर वो आशिक़ आज भी मुझमे कहीं जिंदा हैं, 
और तो वो कुछ कर नहीं सकता, 
पर मेरी शायरी में आज भी वो जिंदा है। 
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'

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